“महाकुंभ से आरएसएस का लक्ष्य स्पष्ट होता है। इसके माध्यम से जीवन के हर क्षेत्र के जन मानस को साझा परंपरा वाली सभ्यता से जोड़ा गया ।” स्विट्जरलैंड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जंग के अनुसार, “दुनिया आपसे आपकी पहचान पूछेगी, और यदि आपको नहीं पता, तो आपकी पहचान दुनिया निर्धारित करेगी।” यह धारणा भारतीयता के विचार और उसके शसक्त संवाहक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में प्रतिध्वनित होता है। एक शताब्दी से आरएसएस भारतीय सभ्यता के चिन्हों को एकसूत्र में पिरोने और विविधता में एकता निर्माण का अद्भुत प्रयास अथक और विश्वसनीय प्रयत्न कर रहा है। आरएसएस जैसे सांस्कृतिक और देशभक्त संगठन की विरासत पर उन लोगों ने दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां की हैं जो इसका हिस्सा कभी नहीं रहे। 2025 में प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ मेला सिर्फ पवित्र नदियों का संगम भर नहीं है, यह भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्ध पहचान का एक अद्भुत प्रतीक भी है। यह आयोजन संपूर्ण पृथ्वी पर एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सम्मेलन है जो आरएसएस की परंपरा का स्रोत और इस महान सभ्यता का एक साझा स्वरूप है। इसीलिए वैश्विक बिखराव, वैचारिक विरोधियों की अथक प्रताड़ना और विद्रूपण (distortion) के अंधकार में भी संघ उम्मीद और लक्ष्य के प्रति दृढ़संकल्प की ज्योति बना रहा है ।
मिथ्या प्रचार के समक्ष दृढ़ता
विश्व में जिन संगठनों ने झूठी बदनामी, दुष्प्रचार और बदनीयती को शांति से सहा है, आरएसएस उनमें प्रमुख है। कई दशकों तक इसे विभाजनकारी, सांप्रदायिक और प्रतिगामी संगठन होने का झूठा आरोप लगा कर बदनाम किया जाता रहा। लेकिन समय के साथ ये सारे आरोप स्वयं निराधार सिद्ध होकर ध्वस्त हो गए। इन आलोचकों में वामपंथी और नेहरूवादी प्रमुख थे जो भारत की सांस्कृतिक एकता की शक्ति से भयभीत थे। इसीलिए उन्होंने आरएसएस की जाती, भाषा, वर्ग और लिंग भेद मिटाने और भारतीय एकता और अखण्डता के लिए जूझने वाले योगदान की लगातार उपेक्षा की है।
वर्तमान सरसंघ चालक डॉ मोहन भागवत ने 2022 में कहा था, ” अब जाती व्यवस्था अप्रासंगिक हो चुकी है। भेदभाव सूचक हर विचार अब समाप्त हो जाना चाहिए।” यह विचार किसी शून्यता से नहीं उपजा है, बल्कि कई दशकों से संघ द्वारा किए जा रहे सामाजिक समरसता, दुर्बल शसक्तीकरण और अंतर्जातीय विवाहों जैसे अनगिनत प्रयासों का मानक प्रतिनिधि है। सामाजिक समरसता के अथक प्रयत्नों के द्वारा संघ ने सिद्ध किया है कि, हिंदुत्व कोई विभाजनकारी विचारधारा नहीं, बल्कि समावेशी भारत के मूल विचारों की अभिव्यक्ति है।
आपातकाल के समय भी जब इंदिरा गांधी की सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाया और इसके लाखों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया, तब भी आरएसएस ने पलटवार के बजाय, संवाद का मार्ग चुना और अपना कार्य करते रहा। जेल से छूटने के बाद बालासाहेब देवरस ने संघ के कार्यकर्ताओं को राष्ट्र निर्माण के कार्य से उनकी बदनामी करने वालों का हृदय जीतने का सुझाव दिया था। 1977 के अपने एक संबोधन में उन्होंने कहा, ” लोग इस विजय का (आपातकाल के बाद हुए चुनाव) श्रेय संघ को दे रहे हैं। अब हमें बड़े दिल से हमारे विरुद्ध कार्य करने वालों के हृदय में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। हमें बड़ा दिल रखना होगा।” इस प्रकार शत्रु भाव से ऊपर उठकर सम्मान और दृढ़ संकल्प से अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित रहना आरएसएस का स्वभाव रहा है।
सांस्कृतिक देशभक्ति और राष्ट्रवाद
संघ के हृदय में सांस्कृतिक देशभक्ति और भारतीय सभ्यता हेतु स्पष्ट दृष्टिकोण समाहित है, जो कि औपनिवेशिक काल की बनावटी राष्ट्रवाद की धारणाओं से मुक्त है। संघ की देशभक्ति किसी भव्य प्रदर्शन में नहीं है, बल्कि इसका वास्तविक रूप असम में बाढ़ग्रस्त परिवारों की सहायता, सुदूर वनवासी क्षेत्रों में बच्चों को पढ़ाना और तमिलनाडु की मृतप्राय कलाओं को संरक्षित करने में परिलक्षित होता है। संघ द्वारा जमीनी स्तर पर किए जा रहे कार्यों को ” मानवतावादी देशभक्ति” की संज्ञा दी जा सकती है। उत्तराखंड की आपदा हो या गुजरात का भूकंप, सबसे पहले राहत और बचाव कार्य हेतु पहुंचने वाले आरएसएस कार्यकर्ता ही थे। ये कार्य कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि आरएसएस की वह परम्परा है जिसमें सेवा को सर्वश्रेष्ठ उपासना माना जाता है।
सांस्कृतिक देशभक्ति और समावेशी राष्ट्रवाद आज के तेजी से परिवर्तनकारी विश्व में भारतीय पहचान है। भूमंडलीकरण के दौर में क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन, लोक कलाओं, शिल्पकलाओं और स्वदेशी संरक्षण जैसा महत्वपूर्ण कार्य संघ परिवार बिना किसी शोर शराबे के कर रहा है। विविधता में एकता को बढ़ाने के प्रयासों से संघ भारत की बहुलतावादी विरासत को और भी सशक्त बना रहा है।
महाकुंभ 2025 : एकता का पवित्र स्वरूप
2025 का प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारत की शसक्त सभ्यता का जीवंत स्वरूप है। गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम तट पर करोड़ों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगा कर पुण्य अर्जित कर रहे हैं। यहां स्नान के साथ ही लोगों का अपनी साझा विरासत में आस्था और आध्यात्मिक एकता भी दिखती है। महाकुंभ में संतों और अखाड़ों की यात्रा, उत्साहित सांस्कृतिक कार्यक्रम, विद्वानों और श्रद्धालुओं का भव्य समागम दिखता है, जो अपने आप में लघु भारत की प्रतिकृति है। जिस प्रकार प्रयागराज में पवित्र नदियां अपना अस्तित्व कायम रखते हुए साथ साथ प्रवाहित हैं, वैसे ही भारतीय संस्कृति में भी विभिन्न पहचान के साथ सब एकसूत्र में बंधे हैं। आज के विभाजित और संघर्षरत दुनिया में एकता का इतना बड़ा संदेश देने वाले महाकुंभ की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसमें आने वाले विदेशी अतिथि भी भारत की सार्वभौमिक मान्यता वाली सभ्यता, दर्शन और आध्यात्मिक चेतना से स्वयं को जोड़ते हैं। जो वसुधैव कुटुंबकम् का सही रूप भी है।
भारत की आंतरिक चेतना की स्वीकृति
सभ्यता मूलक राष्ट्र की आरएसएस की परिकल्पना से भारत को सिर्फ राजनीतिक इकाई मानने वाली विघटनकारी शक्तियों को निर्णायक चुनौती मिल रही है। आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले कहते हैं, ” राष्ट्र एक सांस्कृतिक संकल्पना है। भारत पहले से ही हिन्दू राष्ट्र है।” इस कथन से उस भारत की संकल्पना स्पष्ट होती है को समावेशी है। जो किसी को अलग नहीं करता। एक प्रतिध्वनि है जो भारत की पहचान को उसकी साझा विरासत से जोड़ती है जिसे भाषा, धर्म और क्षेत्रीयता की सीमाएं नगण्य हैं। संघ की इस धारणा में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा और उनके विचारों के भारत का दर्शन मिलता है। जिसमें भारत को एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विश्वगुरु बनाने का स्वप्न है। इस स्वप्न की पूर्ति आरएसएस के प्रयासों से हो रही है, जिसमें “एकल विद्यालय” जैसे शैक्षणिक प्रयास हैं जिसके माध्यम से पारंपरिक ज्ञान और मेधा का सतत विकास हो रहा है। महाकुंभ के साथ साथ आरएसएस का शतक पूर्ति वर्ष सेवा और एकता की इस महान परंपरा का एक ऐतिहासिक संयोग है। एक सभ्यतागत दृष्टिकोण
महाकुंभ 2025 के आयोजन के साथ ही भारतीय सभ्यता के एकता मूलक तत्वों को जीवनसत्व प्राप्त हो रहा है। अपने सौ वर्षों के प्रवास में आरएसएस इसी सभ्यता का संवाहक और सेवक बनकर कार्य कर रहा है। आज कुटिलता और विभाजन से ग्रसित विश्व में संघ एक आशा और विश्वास की ज्योति की भांति प्रकाशमान है। एक ऐसे समाज का निर्माण संघ कर रहा है जहां मतभेदों को बल से नहीं संवाद और सामंजस्य से सुलझाया जा सकता है। सांस्कृतिक देशभक्ति, समावेशी राष्ट्रवाद, सामाजिक समरसता और निस्वार्थ सेवा इस मार्ग को प्रशस्त कर रहा है जो न सिर्फ भारत वरन संपूर्ण विश्व मानवता के लिए हितकारी है। प्रयागराज में पवित्र स्नान के लिए आ रहे सभी के मानस पटल पर प्राचीन भारत की कालातीत चेतना है। जो भारत की आत्मा को अभिव्यक्ति देती है, जहां बहुलता में एकता है, जो दृढ़ होकर भी विकासनशील है। आरएसएस की सौ साल की सेवा यात्रा में हमें कार्ल जंग के प्रश्नों का उत्तर मिलता है। भारत को स्व का ज्ञान है जो संघ के प्रयासों से और भी पल्लवित हो रहा है, साथ ही संपूर्ण विश्व भारत क्या है ये जानता है।